कुमाऊँ सभा (रजि) चण्डीगढ़ स्थापित 1959
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आजादी की लड़ाई में कुमाऊं का योगदान

भारत की आजादी की लड़ाई में कुमाऊं क्षेत्र का विशेष और महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। चाहे वह आंदोलन का नेतृत्व हो, जन जागरण हो या फिर शहादत देने की बारी, कुमाऊं के वीर सपूतों ने कभी पीछे नहीं हटे।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857)

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कुमाऊं के वीरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुमाऊं क्षेत्र के लोग ब्रिटिश सरकार के क्रूर शासन से असंतुष्ट थे और उन्होंने विद्रोह कर अपनी असंतुष्टि जाहिर की। कुमाऊं के वीरों ने ब्रिटिश सैनिकों का विरोध किया और विद्रोह में शामिल हुए।

क्रांतिकारी वीर - कालू सिंह महारा

कुमाऊँ की आज़ादी की लड़ाई की कहानी कालू महारा के बिना पूरी नहीं होती है। भारतीय स्वतंत्रता सेनानी कालू सिंह महारा का जन्म चंपावत जिले के लोहाघाट के समीप हुआ थुआ महारा गांव में 1831 में हुआ था। कालू सिंह महारा ने अपने युवावस्था में ही अंग्रेजों के खिलाफ जंग शुरू कर दी थी। इसके पीछे मुख्य कारण रुहेला के नवाब खान बहादुर खान, टिहरी नरेश, अवध नरेश द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए पूर्ण सहयोग करने का वायदा था। इसके बाद कालू महारा ने लोगों को साथ लेकर बगावत शुरू कर दी । पहला आक्रमण लोहाघाट के चांदमारी में स्थित अंग्रेजों की बैरक पर किया गया। आक्रमण के कारण अंग्रेज वहां से भाग खड़े हुए और इन क्रांतिकारियों ने बैरकों को आग के हवाले कर दिया। कमिश्नर रैमजे ने टनकपुर और लोहाघाट से सैन्य टुकड़ी भेज इन आंदोलनकारियों को रोका। बस्टिया में कालू माहरा ने अंग्रेजों का जमकर मुकाबला किया, लेकिन उन्हें पीछे हटना पड़ा। कालू महारा को उत्तराखंड का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के नाम से जाना जाता है। कालू महारा ने ही अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में क्रांतिवीर संगठन का गठन किया था। उन्होंने कुमाऊँ के लोगों में आज़ादी के लिए जागृति पैदा की और कई जगह अंग्रेजों का मुकाबला किया। कुछ गद्दार लोगों के कारण उनको गिरफ्तार कर लिया गया और कई जेलों में रखा गया। अंग्रेजों का कहर इसके बाद भी खत्म नहीं हुआ और अस्सी साल बाद 1937 तक काली कुमाऊं से एक भी व्यक्ति की नियुक्ति सेना में नहीं की जाती थी। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने यहां के तमाम विकास कार्य तक रुकवा दिए और कालू माहरा के घर पर धावा बोलकर उसे आग के हवाले कर दिया। परन्तु बड़े दुःख की बात है कि कालू महारा व उनके भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम के क्रान्तिकारी साथियों को भारतीय इतिहास वह स्थान नहीं दे पाया जिसके वे असल हकदार थे।

कूर्मांचल परिषद और जन जागरण

1916 में कुमाऊं में कूर्मांचल परिषद की स्थापना हुई, जिसने क्षेत्र में जनजागरण का काम किया। कुमाऊं के बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस परिषद के माध्यम से लोगों को आजादी के महत्व के बारे में जागरूक किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को संगठित किया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930)

महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान कुमाऊं के लोगों ने नमक कानून तोड़ने में सक्रिय रूप से भाग लिया। कुमाऊं के कई हिस्सों में लोगों ने नमक बनाने की कोशिश की और अंग्रेजों के कानूनों का उल्लंघन किया। अल्मोड़ा और नैनीताल जैसे क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोग गिरफ्तार किए गए और जेल में बंद किए गए।

कुली बेगार प्रथा

सन 1815 में जब अंग्रेजों ने कुमाऊं में अपना शासन स्थापित किया तब उन्हें पहाड़ी क्षेत्रों में समान ले जाने वह परिवहन में कठिनाई हुई। इस कारण उन्होंने स्थानीय लोगों को सामान ढोने के लिए प्रयोग किया लेकिन इसके बदले उन्हें कोई भी मेहनताना नहीं दिया जाता था। उनसे न केवल सामान ढोने का काम कराया जाता था बल्कि सड़कों, पुलों, पर्वतीय मार्गों तथा अन्य निजी और सरकारी कार्यों के लिए भी कुली बेगार प्रथा को अपनाया जाता था। ग्रामीणों को बिना पारिश्रमिक के बारी बारी से डाक पहुँचने का कार्य भी करना होता था। 1921 में उत्तरायणी के अवसर पर बागेश्वर में एकत्रित होकर हज़ारों कुलियों ने इस प्रथा का विरोध किया और कुली रिकॉर्ड रजिस्टर को सरयू नदी में बहा दिया। यह समाचार पूरे उत्तराखंड में आपकी तरह फैल गया तथा हर जगह इसका विरोध हुआ काफी लोगों ने अपने घरों में भी कुली रिकॉर्ड रजिस्टर नष्ट कर दिए और इस प्रकार यह प्रथा समाप्त हो गई।

जन संघर्ष और बलिदान

कुमाऊं के लोगों ने स्वतंत्रता की लड़ाई में कई प्रकार के संघर्षों का सामना किया और अनेक बलिदान दिए। कुमाऊं क्षेत्र के लोग न केवल अपनी आजीविका के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़े, बल्कि अपने अधिकारों और सम्मान की रक्षा के लिए भी सक्रिय रहे। कई लोगों ने जेल की यातनाएं सही और कुछ ने अपने प्राणों की आहुति दी। देश की स्वतंत्रता के लिए सीमांत पिथौरागढ़ जिले के सैकड़ों सेनानियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग लड़ी थी। इनमें 91 सेनानी आजाद हिंद फौज के थे। 25 अगस्त, 1942 को आजादी की लड़ाई के दौरान जैंती के धामद्यो में ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लेते हुए चौकुना गांव निवासी नर सिंह धानक और कांडे निवासी टीका सिंह कन्याल शहीद हो गए थे। इसी उपलक्ष्य में हर वर्ष सालम क्रांति दिवस मनाया जाता हैI

प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी

कुमाऊं के कई प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी भी आजादी की लड़ाई में सक्रिय थे। गोविंद बल्लभ पंत, जो बाद में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने, कुमाऊं के थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई और कुमाऊं के लोगों को संगठित कर स्वतंत्रता आंदोलन में उनका नेतृत्व किया। इसके अलावा, बद्री दत्त पांडे, भवानी दत्त जोशी , मोहन सिंह मेहता, शहीद नर सिंह, टीका सिंह, नरसिंह धानक, प्रयाग दत्त पंत, राम सिंह धोनी, दुर्गा दत्त पांडे शास्त्री, रेवाधर पांडे, प्रताप सिंह बोरा, राम सिंह आजाद, हरगोविंद पंत, चिरंजी लाल, चेतराम और कृष्णानंद उप्रेती भी प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने कुमाऊं से ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन चलाया। मोहन सिंह मेहता जी के ऊपर ऐश्वर्या मेहता ने ‘Krantikari of Kumaon: Mohan Singh Mehta’ नामक किताब भी लिखी है।

निष्कर्ष

कुमाऊं का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान अविस्मरणीय है। इस क्षेत्र के वीरों और जनता ने अपने बलिदानों और संघर्षों के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी। कुमाऊं के लोगों की वीरता और बलिदान स्वतंत्रता संग्राम के पन्नों में सदा के लिए अमर रहेंगे। उनके इस योगदान ने ना सिर्फ उत्तराखंड को बल्कि पूरे भारत को गौरवान्वित किया।