मेले:-
हमारी कुमाऊंनी संस्कृति/ परम्परा/रीती रिवाज़ केअभिन्न अंग
हमारे कुमाऊँ अंचल में विभिन्न पर्वों के अवसर पर मेले आयोजित होते रहते हैं। यह कुछ मेले धार्मिक आस्था, सद्भावना, भाई चारा,मनोरंजन, मेल-मिलाप आदि को दर्शाते हैं I
मेले का अर्थ है मेल मिलाप या आपसी मिलन(हमारे कुमाऊनी भाषा में मेले को कौतिक के नाम से भी जाना जाता है), जिससे लोग किसी नियत स्थान पर जुड़ते है, जहां पर जन-समूह की आवश्यकता हेतु अस्थायी बाजार भी लगाया जाता है। अगर हम मेलों के सांस्कृतिक महत्व की बात करें तो मेले और उत्सव किसी क्षेत्र विशेष के जनजीवन व संस्कृति को समझने का एक सशक्त माध्यम होते हैं। हमारे कुमाऊँ के पहाड़ी क्षेत्र में विषम और दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण मेलों के आयोजन का महत्व और भी बढ़ जाता है। लेकिन साथ ही इनमें स्थानीय लोक संस्कृति और लोक कलाओं का समावेश भी होता रहा। इस प्रकार यह मेले स्थानीय लोगों को मनोरंजन और सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रस्तुत करने का अवसर भी प्रदान करते हैं।
आओ अब हम उन्नीसवीं सदी (लगभग 50 वर्ष पीछे ) में प्रवेश कर उस समय के मेलों को याद करते हैं:-
शुरुआत बच्चों के उत्साह से:-
साधन विहीन / असक्षम होकर भी वर्ष के सभी मेलों का उस समय में बड़ी बेसब्री से इंतज़ार होता था I माँ और पिता जी से नए कपडे की फरमाइश करते थे I धन का अभाव होने के बावजूद भी हम हम अपने बूबू जी, पिता जी, ताऊ जी, चाचा जी और पारिवारिक जनों से यह मेले का खर्चा इक्क्ठा करते थेI बड़े उत्साह से अपने खर्चे की व्यवस्था हो जाने पर स्कूल और गांव के सभी दोस्तों को मेले में चलने के लिए तैयार करते थे , 5-6 किलोमीटर तक पैदल आना जाना करते थे, अपने लिए गुब्बारे,खिलोने आदि खरीदते थे, चाट और जलेबी बड़े ही चाव से खा कर , ख़ुशी-ख़ुशी दोस्तों के साथ शाम को घर आ जाते थे.
बड़े, बुजुर्गों और महिलाओं का उत्साह :-
बड़े और बुजुर्गों और महिलाओं का उत्साह भी बच्चों से कम नहीं होता था I उनको भी उस मेले में अपने रिश्तेदारों,बेटियों और पहचान वालों से मुलाकात की बड़ी आतुरता दिखाई देती थी, बड़े ही प्यार से मिलते थे ,अपने-अपने दुःख और सुख साँझा करते थे, उस समय में पहाड़ के अधिकांश लोग गरीबी का जीवन जीते थे , बहु-बेटियों को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता था अतः माताएं अपनी बेटियों के लिए जलेबी ‘बेडू’ रोटियां ले जाकर अपनी बेटियों को प्यार से भरपेट खिलाते थे I
यह लेख लिखने का अभिप्राय यह है की आज हम अच्छे पढ़े -लिखे , अच्छे व्यवसाय, उच्च स्थान पर आसीन और धन दौलत से परिपूर्ण होते हुए इस भौतिकता की चकाचौंध में इस कदर डूब गए हैं कि नाते- रिश्ते, अपना- पराया, दोस्ती भाई- चारा, प्रेम – प्यार आदि सब कुछ भूल गए हैं I यदि कहा जाये तो वर्तमान से पूर्व का समय कितना अच्छा था जिसमे साधन विहीन जीवन भी अपने भाई -चारे , आपसी सहयोग , अपनत्व की भावना , प्रेम प्यार , सुख दुःख आदि के साथ खुशी खुशी जिया जाता था I
मेरा चंडीगढ़ और आस पास के रहने वाले कुमाऊं के सभी प्रवासी बंधुओ से करबद्ध निवेदन है कि अपने पूर्वजों के अच्छे क्रिया कलापों का मनन कर, आज के जीवन में शामिल करेंI यदि हम सभी कुमाऊँ वाशी एकजुट होकर, सारे गिले शिकवे छोड़कर कुमाऊं सभा मंच में एकजुटता का परिचय दें तब हमारी सभी चुनोतियाँ आसानी से हल हो जाएँगी।
इन्हीं शब्दों के साथ कुमाऊं समाज से आपका,
के.आर. मठपाल
डेराबस्सी